Monika garg

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लेखनी कहानी -13-May-2022#नान स्टाप चैलेंज# यशोदा

सुनो जी! हमारा बेटा पाँच साल का हो गया अब तो उसे यहाँ ले आओ! हमारे साथ रहेगा और यहीं पढ़ेगा।"

"अच्छा आज ममता फूट रही है तब कहाँ थी जब गर्भपात कराने चली थी।"

"तब एमबीए करना था। अपना करियर बनाना था मगर अब उसके बिना जिया नहीं जाता। तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ मेरे बेटे को वापस ले आओ!"

"वापस ले आऊँ..उस माँ से छीनकर जिन्होंने अपने आँचल में छिपाकर हमारे नौनिहाल को पाला है। माफ़ करना जिया मैं इतना स्वार्थी नहीं!"

"माँ को भी ले आओ। हम सब साथ रहेंगे।"

"सो जाओ देर हो रही है इस बारे में फिर कभी बात करेंगे।" यह कहकर आविनाश ने लैंप की बत्ती बुझाई ही थी कि माँ का फोन आ गया।

"बाबू को बहुत बुखार है अवि..सब दवाई देकर देख ली पर बुखार उतर ही नहीं रहा। दो दिन पहले स्कूल से आया और तभी से बुखार में तप रहा है.."


"अच्छा माँ! मैं डॉक्टर से समय लेता हूँ। तुम उसे पूर्णिया के उसी नर्सिंग होम में लेकर आ जाओ। जहाँ उसका जन्म हुआ था याद है न! मैं शाम तक पहुँच जाऊँगा।"


"हाँ !बेटा!

कहकर बिस्तर पर आई तो निशु जाग रहा था। कहीं इसने कुछ सुन तो लिया। ऐसे भी आजकल बहुत सवाल करने लगा है। अभी उस रोज स्कूल से लौटने पर फिर वही रट लगाए था।

"तुम मेरी माँ नहीं हो ! तुम दादी हो!"

"किसने कहा तुझसे?"

"स्कूल में सब कहते हैं..!"

"सब झूठ कहते हैं बबुआ..तु हमर कृष्णा आर हम तोर यशोदा मैया.."कहकर उसकी मनपसंद लोरी सुनाने लगी ताकि वह सो जाए मगर वह था कि करवट ही लिए जा रहा था। जाने कौन सा बुखार था या फिर कोई सोच जो उसे अगन सा तपा रही थी। उसके कष्ट से व्यथित यशोदा को अतीत याद आने लगा। उसकी उम्र ही क्या थी जब अविनाश गोद में था और उसके पिता का साया सिर से उठ गया था। जल्दी शादी हुई थी और दो वर्ष बाद ही विधवा हो गई। तब अविनाश को ही गले लगाकर जी सकी थी और अब इतिहास की पुनरावृत्ति हो रही थी। निशांत उसके कुल का चिराग ही उसके आँखों की रौशनी बना था। दिनभर उसकी तोतली बातों के नशे में मगन रहती और उसे सुलाकर अक्सर बेटे का हालचाल लेती और उससे मशविरा किया करती। अब सुबह निशु को लेकर पूर्णिया जाएगी। यही ख्याल कर सो गई।

सुबह मुँह अंधेरे उठकर साबूदाने की खिचड़ी बनाई जो निशु खुशी से खाता था और जब उसे जगाने गई तो निशु बिस्तर पर नहीं था। भागकर आँगन ,छत,दरवाजा हर ओर देख आई पर निशु कहीं नहीं था। मारे डर के उसके प्राण सूख गए थे। स्कूल और उसके स्कूल के दोस्तों सबके घर घूम आई पर वह नहीं दिखा। अब तो उसे मूर्च्छा सी आने लगी। शरीर को किसी तरह घसीटती रास्ते,चौक,दुकानें हर ओर नजरें दौड़ा रही थी। मृतप्राय सी यशोदा पैदल ही उसे ढूँढती जा रही थी कि तभी बेटे की बात याद आई और वह पूर्णियां जाने वाले बस में बैठ गई। उसकी नजरें पूरे रास्ते निशू को ही ढूँढ रही थी। उफ़! कैसे अस्पताल से खरगोश की तरह कोमल शिशु लेकर घर आई थी..और कैसे-कैसे रात-दिन एक कर उसे पाला..।

एक बार को उसे भी यह डर भी था कि बिन माँ के बच्चे को पालेगी कैसे पर ईश्वर की अपार महिमा कहें या प्रकृति का चमत्कार जो उसकी छाती से अमृत फूट पड़ा और उसने उसी अमृतपान के भरोसे सीने से लगाकर शिशु को जीवन दिया। अच्छी तरह याद है उसे कि बहु कितना रो-पीट रही थी कि उसे किसी भी हाल में बच्चा नहीं चाहिए तब उसने झोली फैलाकर अपने कुल के दीपक को उससे माँग लिया था और कहा था,"आज से यह मेरा बेटा और मैं इसकी माँ हूँ। तुम यही समझना कि गर्भ गिरा दिया। तुम्हें बच्चा नहीं चाहिए और मुझे इसके सिवा तुमसे कुछ भी नहीं चाहिए।"


उस रोज से न तो बेटे-बहु का मुँह देखा और न उन्हें निशु से मिलना दिया। अब रह-रहकर पछता रही थी..बिन माँ-बाप का बच्चा न जाने किस हाल में होगा..किस कलमूँहें की नज़र लग गई..किसने क्या सिखा-पढ़ा दिया और मेरा लाल बुखार में ही घर से निकल गया..जाने कहाँ भटक रहा होगा। हाय! मेरा बच्चा ..यही सोच-सोचकर उसका हलक सूखा जा रहा था। राहगीरों से भी पूछ-पूछकर थक गई तो किसी ने उसे थाने में रिपोर्ट करने की सलाह दी। उसे भी लगा कि स्कूल के बच्चों के बहकावे में आकर शायद वह दिल्ली की ट्रेन में बैठ गया होगा। उसकी फोटो लेकर जब उसने जीआरपी थाने में दिखाया तो हर रेलवे स्टेशन यह संदेश भेज दिया गया। अविनाश तक जब यह खबर पहुँची तो वह बुरी तरह सकते में आ गया। वह तो पूर्णियां के लिए एयरपोर्ट निकलने ही वाला था कि बेटे की गुमशुदगी की खबर आई। वह जान रहा था कि इस वक़्त उसकी माँ और उसका बेटा दोनों अलग ही दिशाओं में भटक रहे होंगे। किसे पहले देखे और किसे बाद में यह उसकी समझ के परे था तो जिया से बोला।

मैंने जीआरपी थाने में यहाँ का पता लिखवा दिया है। पुलिसवाले निशांत को यहाँ ले आएंगे। मुझे माँ को देखने जाना होगा।"


"ओह! मैं न कहती थी कि मेरे बेटे को ले आओ..कुछ तो अंदेशा हो रहा था.. जाने कहाँ और किस हाल में होगा मेरा लाल ..!"


"धीरज रखो..लौटकर मिलता हूँ।" कहकर अविनाश ने फ्लाइट पकड़ ली। इधर यशोदा जीआरपी थाने के बाहर बैठी बेतहाशा रोए जा रही थी। पिछले बारह घंटे से पानी की एक बूँद भी हलक से नीचे नहीं उतारी थी तो वहीं मुर्च्छित होकर गिर पड़ीं। उनकी यह अवस्था देखकर महिला कांस्टेबल ने रेलवे अस्पताल में भर्ती करा दिया। शाम होते-होते बेटा माँ के सिरहाने में बैठा था।


"माँ! तुम ठीक हो जाओ माँ!"


"मेरे निशु को ले आ बेटा..हे ईश्वर! ये कैसा अनर्थ है.मेरे प्राण ले ले पर मेरे बच्चे को बख्श दे..!"


लगातार यही रटे जा रही थी। अविनाश उन्हें ढाढ़स देने का जितना भी यत्न करता उसे उतनी ही असफलता हाथ लगती। माँ-बेटे ने रोते-बिलखते ही रात बिताई। सुबह के सात बजे तो जिया का फोन आया।


"अविनाश! हमारा बेटा आ गया ..निशु घर आ गया अविनाश.. वह बिल्कुल ठीक है..!"


"थैंक गॉड! मैं माँ को यह खुशखबरी देकर आता हूँ।" कहकर वह माँ की ओर बढ़ा पर यह क्या..उस बेवा की आँखें पौत्र मोह में पथरा चुकी थीं। जिस मोह ने उन्हें जकड़ रखा था उसकी कुशलता की कामना करती उन्होंने अपने लिए मृत्यु माँग लिया था। ईश्वर ने उनकी दुआ कुबूल कर ली थी। निशु सही-सलामत घर पहुँच गया था। उन्होंने उसे दोबारा जीवनदान दिया था।

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3 Comments

बेहतरीन रचना 👌

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shweta soni

03-Jan-2023 06:36 PM

Behtarin rachana 👌

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Gunjan Kamal

03-Jan-2023 11:33 AM

शानदार

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